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स होता॒ यस्य॒ रोद॑सी चिदु॒र्वी य॒ज्ञंय॑ज्ञम॒भि वृ॒धे गृ॑णी॒तः। प्राची॑ अध्व॒रेव॑ तस्थतुः सु॒मेके॑ ऋ॒ताव॑री ऋ॒तजा॑तस्य स॒त्ये॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa hotā yasya rodasī cid urvī yajñaṁ-yajñam abhi vṛdhe gṛṇītaḥ | prācī adhvareva tasthatuḥ sumeke ṛtāvarī ṛtajātasya satye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। होता॑। यस्य॑। रोद॑सी॒ इति॑। चि॒त्। उ॒र्वी इति॑। य॒ज्ञम्ऽय॑ज्ञम्। अ॒भि। वृ॒धे। गृ॒णी॒तः। प्राची॒ इति॑। अ॒ध्व॒राऽइ॑व। त॒स्थ॒तुः। सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑। ऋ॒ताव॑री॒ इत्यृ॒तऽव॑री। ऋ॒तऽजा॑तस्य। स॒त्ये इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:6» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:27» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जिस अग्नि के संबन्ध में (उर्वी) बहु स्वरूपवाले (अध्वरेव) न नष्ट करने योग्य यज्ञों के समान (प्राची) प्राक्तन (सुमेके) अच्छे प्रकार प्रक्षेप किये हुए (ऋतावरी) जिनमें बहुत उदक जल विद्यमान (ऋतजातस्य) सत्य कारण से उत्पन्न हुए संसार के बीच (सत्ये) विद्यमान पदार्थों में हित या कारणरूप से नित्य (रोदसी) जो आकाश और पृथिवी (वृधे) वृद्धि के लिये (यज्ञंयज्ञम्) प्रति व्यवहार को (आभिगृणीतः) सन्मुख कहते (चित्) ही (तस्थतुः) स्थित होते हैं (सः) वह (होता) ग्रहणकर्त्ता वा सर्व पदार्थों को धारणकर्त्ता अग्नि सबको जानने योग्य है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - यदि भूमि सूर्य्य उदय को न प्राप्त हों, तो किसी व्यवहार के सिद्ध करने को कोई योग्य न हो और न किसी की वृद्धि हो ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यस्याग्नेः सम्बन्धे उर्वी अध्वरेव प्राची सुमेके ऋतावरी ऋतजातस्य सत्ये रोदसी वृधे यज्ञं यज्ञमभि गृणीतश्चित्तस्थतुः स होताग्निः सर्वैर्वेदितव्यः ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (होता) आदाता धर्ता (यस्य) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (चित्) (उर्वी) बहुस्वरूपे (यज्ञंयज्ञम्) प्रतिव्यवहारम् (अभि) आभिमुख्ये (वृधे) वृद्धये (गृणीतः) शब्दयतः (प्राची) प्राक्तने (अध्वरेव) अहिंसनीयौ यज्ञाविव (तस्थतुः) तिष्ठतः (सुमेके) सुष्ठुप्रक्षिप्ते (ऋतावरी) बहूनृतादीन्युदकानि विद्यन्ते ययोस्ते (ऋतजातस्य) ऋतात्सत्यात्कारणाज्जातस्य जगतो मध्ये (सत्ये) सत्सु साध्व्यौ हिते कारणरूपेण नित्ये वा ॥१०॥
भावार्थभाषाः - यदि भूमिसूर्य्यौ नोदेत्स्यतां तर्हि कंचिदपि व्यवहारं साद्धुं कोऽपि नार्हिष्यत् नापि कस्यापि वृद्धिरभविष्यत् ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जर भूमी व सूर्य उदित झाले नसते तर कोणताही व्यवहार सिद्ध झाला नसता व कुणाचीही वृद्धी झाली नसती. ॥ १० ॥